हिंदू धर्म की पहेलियाँ: डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर का गहन और तर्कसंगत विश्लेषण
हिंदू धर्म की गूढ़ पहेलियाँ – डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की ऐतिहासिक कृति
परंपरा, विरोधाभास और सामाजिक न्याय पर एक तर्कपूर्ण विमर्श
परिचय
भारतीय समाज सुधार के इतिहास में डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की रचनाएँ मील का पत्थर मानी जाती हैं। उनकी पुस्तक "Riddles in Hinduism" (हिंदू धर्म की गूढ़ पहेलियाँ) मात्र एक ग्रंथ नहीं, बल्कि एक बौद्धिक क्रांति है। इसमें उन्होंने हिंदू धर्म की आंतरिक असंगतियों, जातिगत अन्याय और धार्मिक रूढ़ियों पर गहरे सवाल खड़े किए।
यह कृति आंबेडकर का साहसिक प्रयास था कि समाज आँख मूँदकर परंपराओं को न माने, बल्कि उन्हें तर्क, विवेक और विज्ञान की कसौटी पर परखे। यही कारण है कि यह पुस्तक आज भी प्रासंगिक है और सामाजिक समानता के लिए संघर्ष करने वालों को प्रेरणा देती है।
पुस्तक का ऐतिहासिक संदर्भ
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने 1954-55 के दौरान "Riddles in Hinduism" लिखी। उस समय वे हिंदू धर्म से पूरी तरह निराश होकर बौद्ध धर्म की ओर अग्रसर हो चुके थे। उनका मानना था कि हिंदू धर्म की मूल संरचना ही असमानता और जातिवाद पर आधारित है, इसलिए इसके भीतर सुधार संभव नहीं।
यह पुस्तक उनके जीवनकाल में प्रकाशित नहीं हो सकी। 6 दिसंबर 1956 को उनके निधन के बाद, उनकी अप्रकाशित रचनाएँ महाराष्ट्र सरकार के पास चली गईं। अंततः 1987 में महाराष्ट्र सरकार ने इसे "Dr. Babasaheb Ambedkar: Writings and Speeches (Vol. 4)" के रूप में प्रकाशित किया।
आंबेडकर का उद्देश्य
आंबेडकर इस कृति के माध्यम से दिखाना चाहते थे कि—
- हिंदू धर्म कोई एकरूप धर्म नहीं, बल्कि विरोधाभासों से भरा हुआ है।
- इसकी संरचना विशेषकर ब्राह्मणवादी हितों को सुरक्षित करने के लिए गढ़ी गई।
- जाति व्यवस्था और सामाजिक असमानता को "धर्म" का नाम देकर स्थायी बनाया गया।
- समाज को तर्क और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से धर्म का मूल्यांकन करना चाहिए।
पुस्तक की संरचना और मुख्य विषय
"Riddles in Hinduism" को आंबेडकर ने तीन बड़े भागों में विभाजित किया:
- धार्मिक पहेलियाँ – वेदों की उत्पत्ति, देवताओं की भूमिका, हिंदू पहचान की अस्पष्टता।
- सामाजिक पहेलियाँ – जाति व्यवस्था, महिलाओं की स्थिति, वर्णाश्रम।
- राजनीतिक पहेलियाँ – हिंदू धर्म और लोकतंत्र, ब्राह्मणवाद की राजनीति।
भाग 1: धार्मिक पहेलियाँ
1. हिंदू होने की पहचान की पहेली
आंबेडकर प्रश्न करते हैं कि "हिंदू कौन है?"
- मुस्लिम, ईसाई या पारसी अपनी धार्मिक पहचान स्पष्ट कर सकते हैं, परंतु हिंदू पहचान अस्पष्ट रहती है।
- अलग-अलग संप्रदाय और परंपराएँ इसे परिभाषित करने में असफल रहते हैं।
- जाति और आचार-व्यवहार के आधार पर हिंदू होने की परिभाषा बदलती रहती है।
2. वेदों की उत्पत्ति की पहेली
- हिंदू परंपरा में वेदों को "अपौरुषेय" यानी ईश्वर प्रदत्त कहा गया।
- लेकिन विभिन्न ग्रंथों में उनकी उत्पत्ति अग्नि, वायु, सूर्य या ब्रह्मा से बताई गई है।
- आंबेडकर के अनुसार, यह विरोधाभास ही बताता है कि वेद दैवीय न होकर मानव निर्मित हैं।
3. वेदों की अचूकता की पहेली
- ब्राह्मणों ने वेदों को "अचूक" घोषित कर दिया, ताकि उनकी आलोचना न हो सके।
- वेदों तक पहुँच केवल ब्राह्मणों तक सीमित रखी गई।
- इससे ज्ञान का केंद्रीकरण हुआ और सामाजिक असमानता गहरी हुई।
भाग 2: सामाजिक पहेलियाँ
1. जाति व्यवस्था की पहेली
- आंबेडकर स्पष्ट कहते हैं कि जाति व्यवस्था कोई प्राकृतिक व्यवस्था नहीं है।
- मनुस्मृति और धर्मशास्त्रों ने इसे गढ़कर कुछ वर्गों को सत्ता में स्थायी बना दिया।
- जन्म आधारित योग्यता की अवधारणा ने सामाजिक गतिशीलता (Social Mobility) को समाप्त कर दिया।
2. महिलाओं की स्थिति की पहेली
- मनुस्मृति ने महिलाओं को हमेशा पिता, पति या पुत्र पर आश्रित बताया।
- उन्हें शिक्षा और संपत्ति के अधिकार से वंचित रखा गया।
- विधवा स्त्रियों को सामाजिक जीवन से लगभग निष्कासित कर दिया गया।
आंबेडकर ने इसे असमानता की जड़ माना और इसके खिलाफ आवाज उठाई।
भाग 3: राजनीतिक पहेलियाँ
हिंदू धर्म और लोकतंत्र की असंगति
- लोकतंत्र का आधार है समानता और बंधुत्व, परंतु हिंदू धर्म जातिगत असमानता पर आधारित है।
- आंबेडकर मानते थे कि सामाजिक समानता के बिना राजनीतिक लोकतंत्र टिकाऊ नहीं हो सकता।
- इसीलिए उन्होंने चेतावनी दी थी कि हिंदू धर्म और लोकतांत्रिक आदर्श साथ-साथ नहीं चल सकते।
"Riddles in Hinduism" का महत्व और प्रभाव
- यह पुस्तक ब्राह्मणवादी ढाँचे को चुनौती देती है और सामाजिक न्याय की नई दृष्टि प्रदान करती है।
- बौद्धिक जगत में इसे "धर्म पर तर्कपूर्ण समीक्षा" का सबसे साहसी प्रयास माना जाता है।
- दलित आंदोलन और बहुजन समाज की चेतना को इसने नई दिशा दी।
- आज भी यह पुस्तक सामाजिक सुधार और समानता के संघर्ष का मार्गदर्शक है।
निष्कर्ष
"हिंदू धर्म की गूढ़ पहेलियाँ" केवल एक धार्मिक आलोचना नहीं, बल्कि एक सामाजिक क्रांति का घोषणापत्र है। डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने इस पुस्तक के माध्यम से हमें यह सिखाया कि धर्म का मूल्यांकन आँख मूँदकर आस्था से नहीं, बल्कि तर्क और विवेक से होना चाहिए।
विचार के लिए प्रश्न
क्या भारतीय समाज आज भी आंबेडकर के इन सवालों का सामना करने के लिए तैयार है?
क्या हम परंपरा से परे जाकर समानता और न्याय पर आधारित नया समाज गढ़ सकते हैं?
Kaushal Asodiya