Sankalp Diwas 23 September 1917: Baba Saheb Ambedkar Kamati Baug Vadodara का ऐतिहासिक संकल्प और समाज पर प्रभाव
संकल्प दिवस (23 सितंबर 1917, वडोदरा कमाटी बाग): बाबा साहेब अंबेडकर का ऐतिहासिक संकल्प और उसका सामाजिक प्रभाव
डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर का जीवन भारत के आधुनिक इतिहास का एक ऐसा अध्याय है, जिसमें संघर्ष, अन्याय, पीड़ा और क्रांति—सब कुछ समाहित है। उनकी प्रत्येक उपलब्धि न सिर्फ उनके व्यक्तिगत साहस की कहानी कहती है, बल्कि पूरे शोषित और वंचित समाज की आशाओं को आवाज देती है।
इसी कड़ी में 23 सितंबर 1917, वडोदरा कमाटी बाग का दिन विशेष महत्व रखता है। यही वह क्षण था जब बाबा साहेब ने अपने जीवन को नौकरी या निजी सुविधा के बजाय सामाजिक न्याय और समता की लड़ाई को समर्पित करने का संकल्प लिया। यही घटना आज “संकल्प दिवस” के रूप में याद की जाती है।
आइए विस्तार से समझते हैं इस ऐतिहासिक दिन की पृष्ठभूमि, घटनाक्रम, प्रभाव और आज के भारत में इसकी प्रासंगिकता।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: संघर्ष से शिक्षा तक
डॉ. अंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को मध्य प्रदेश के महू नगर में हुआ। बचपन से ही उन्हें जातिगत भेदभाव झेलना पड़ा—स्कूल में अलग बैठना, पानी तक छूने की अनुमति न मिलना, और समाज में अपमानित होना।
फिर भी, उनकी मेधा और मेहनत ने उन्हें शिक्षा की ऊँचाइयों तक पहुँचाया।
- उन्होंने मुंबई के एल्फिंस्टन कॉलेज से स्नातक की पढ़ाई पूरी की।
- बड़ौदा राज्य के महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ ने छात्रवृत्ति दी, जिससे वे अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय और इंग्लैंड के लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में उच्च शिक्षा प्राप्त कर सके।
- विदेश में उन्हें सम्मान, बराबरी और स्वतंत्रता का अनुभव हुआ। लेकिन भारत लौटते ही वास्तविकता फिर सामने थी।
छात्रवृत्ति के अनुबंध के अनुसार, उन्हें बड़ौदा राज्य में सैनिक सचिव की नौकरी करनी थी। यही अवसर उनके जीवन का निर्णायक मोड़ बना।
वडोदरा का कटु अनुभव: अपमान की आग
1917 में जब वे बड़ौदा पहुँचे, तो उनका सामना सामाजिक अपमान की कड़वी सच्चाई से हुआ।
- नौकरी मिल गई, पर रहने की जगह नहीं।
- कई धर्मशालाओं ने केवल उनकी जाति जानकर उन्हें बाहर निकाल दिया।
- अंततः एक पारसी धर्मशाला में रुके, लेकिन वहाँ भी पहचान उजागर होते ही अपमानित कर दिया गया।
अपने आत्मकथात्मक लेख “वेटिंग फॉर ए वीज़ा” में अंबेडकर ने इस पीड़ा का वर्णन किया है—“इतनी ऊँची शिक्षा और डिग्रियों के बावजूद, मुझे केवल अछूत होने के कारण बार-बार ठुकराया गया।”
यह अनुभव उनके भीतर गहरे आघात की तरह बैठ गया।
कमाटी बाग: जहाँ आँसू बने संकल्प
23 सितंबर 1917 को अंबेडकर मुंबई लौटने के लिए स्टेशन पहुँचे। ट्रेन लेट थी, तो वे पास के कमाटी बाग (अब संकल्प भूमि) में वटवृक्ष के नीचे बैठ गए।
वहाँ उन्होंने अपने अपमान और पीड़ा को याद किया और पहली बार यह सवाल खुद से पूछा—
“अगर इतनी पढ़ाई और डिग्रियों के बाद भी मुझे समाज में जगह नहीं मिली, तो मेरे समाज के बाकी लोगों का क्या होगा?”
भावनाओं की इस प्रचंड ज्वाला ने उन्हें रुला दिया। लेकिन उसी क्षण उन्होंने ऐतिहासिक संकल्प लिया:
- अब नौकरी नहीं, बल्कि समाज सुधार ही मेरा मार्ग होगा।
- जातिवाद और छुआछूत को खत्म करना ही मेरा जीवन-लक्ष्य होगा।
- शिक्षा, संगठन और संघर्ष के जरिए पूरे समाज को बराबरी का हक दिलाना ही मेरा कर्तव्य होगा।
यही संकल्प आगे चलकर भारतीय लोकतंत्र की नींव बना।
संकल्प दिवस: सामाजिक क्रांति की शुरुआत
इस घटना के बाद बाबा साहेब का जीवन दिशा बदल चुका था। उनका संकल्प केवल व्यक्तिगत पीड़ा से उपजा गुस्सा नहीं था, बल्कि एक व्यापक सामाजिक क्रांति की शुरुआत थी।
उनके संकल्प के प्रत्यक्ष परिणाम:
- संविधान निर्माण: अंबेडकर ने भारत को ऐसा संविधान दिया जिसमें समानता, स्वतंत्रता और भाईचारा के सिद्धांत अंकित हैं।
- शिक्षा पर जोर: उन्होंने दलितों और वंचित वर्गों के लिए शिक्षा के द्वार खोलने का अभियान चलाया।
- सामाजिक आंदोलन: उनके नेतृत्व में छुआछूत और जातिवाद के खिलाफ स्थायी आंदोलन खड़े हुए।
- कानूनी सुरक्षा: अनुसूचित जाति और जनजाति के अधिकारों की रक्षा के लिए विशेष कानून बने।
यानी 23 सितंबर का वह संकल्प भारतीय समाज की क्रांति का बीज था।
संकल्प भूमि: चेतना का तीर्थ
कमाटी बाग अब “संकल्प भूमि” कहलाता है। जिस वटवृक्ष के नीचे अंबेडकर ने संकल्प लिया, उसे ऐतिहासिक धरोहर के रूप में संरक्षित किया गया है।
- हर साल 23 सितंबर को हजारों-लाखों लोग यहाँ इकट्ठा होकर संकल्प दिवस मनाते हैं।
- केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय ने इसे राष्ट्रीय स्मारक बनाने की सिफारिश की है।
- गुजरात सरकार और केंद्र ने स्मारक परियोजनाओं के लिए करोड़ों रुपये स्वीकृत किए हैं।
- सामाजिक संगठन और “संकल्प भूमि ट्रस्ट” इस जगह को दलित चेतना के तीर्थ स्थल के रूप में विकसित कर रहे हैं।
यह स्थान अब केवल इतिहास नहीं, बल्कि प्रेरणा का जीवंत स्रोत है।
वर्तमान में संकल्प दिवस की प्रासंगिकता
आज भारत भले ही तकनीकी और आर्थिक दृष्टि से आगे बढ़ रहा हो, लेकिन जातिवाद और सामाजिक भेदभाव की चुनौतियाँ अभी भी मौजूद हैं। ऐसे समय में संकल्प दिवस का संदेश और भी महत्वपूर्ण हो जाता है।
यह दिन हमें याद दिलाता है:
- अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना आवश्यक है।
- शिक्षा और जागरूकता ही वास्तविक मुक्ति का रास्ता है।
- एकता और संगठन से ही सामाजिक बदलाव संभव है।
बाबा साहेब की सीख आज भी उतनी ही प्रासंगिक है—
“शिक्षित बनो, संगठित हो और संघर्ष करो।”
निष्कर्ष: आँसू से क्रांति तक
23 सितंबर 1917, कमाटी बाग की घटना केवल अंबेडकर के जीवन का मोड़ नहीं थी, बल्कि भारतीय समाज की क्रांति की शुरुआत थी। उस रात उनके आँसू, पीड़ा और संकल्प ने आने वाले दशकों में लाखों-करोड़ों वंचित लोगों को नई दिशा दी।
आज संकल्प दिवस हमें यह प्रेरणा देता है कि—
- न्याय और समानता की लड़ाई अभी अधूरी है।
- समाज में बदलाव के लिए हमें भी बाबा साहेब की तरह साहस और दृढ़ता दिखानी होगी।
- हर पीढ़ी को अपने संकल्प से इस मशाल को आगे बढ़ाना होगा।
वडोदरा की संकल्प भूमि सिर्फ इतिहास नहीं, बल्कि भविष्य की रोशनी है।
✍️ Kaushal Asodiya