धर्म और राज्य को अलग रखना क्यों जरूरी है? – ऐतिहासिक, वैश्विक और वर्तमान परिप्रेक्ष्य
धर्म और राज्य को अलग रखना क्यों जरूरी है? – ऐतिहासिक, वैश्विक और वर्तमान परिप्रेक्ष्य
राज्य और धर्म का संबंध हमेशा से एक संवेदनशील विषय रहा है। जब धर्म और राजनीति का मेल होता है, तो समाज में असमानता, सांप्रदायिक तनाव और भेदभाव जैसी समस्याएं बढ़ जाती हैं। धर्म किसी व्यक्ति की निजी आस्था से जुड़ा होता है, जबकि राज्य का कर्तव्य होता है कि वह सभी नागरिकों को समान अधिकार दे।
भारत, पाकिस्तान, अमेरिका और अन्य देशों के उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है कि जब राजनीति में धर्म का हस्तक्षेप बढ़ता है, तो समाज में विभाजन और अस्थिरता आ जाती है। इतिहास में भी कई ऐसे उदाहरण मिलते हैं जब धर्म और राजनीति के मेल ने युद्ध, हिंसा और भेदभाव को जन्म दिया।
इस लेख में हम समझेंगे कि क्यों किसी भी लोकतांत्रिक और आधुनिक समाज में धर्म और राज्य को अलग रखना आवश्यक है।
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राज्य और धर्म को अलग रखने की आवश्यकता
1. सभी नागरिकों के लिए समानता सुनिश्चित करना
राज्य का कर्तव्य है कि वह सभी नागरिकों को समान अधिकार और अवसर प्रदान करे, चाहे उनकी धार्मिक पहचान कुछ भी हो। यदि राज्य किसी विशेष धर्म का पक्ष लेता है, तो अन्य धर्मों के अनुयायियों को भेदभाव और असमानता का सामना करना पड़ता है।
उदाहरण के लिए, पाकिस्तान को इस्लामिक देश घोषित किया गया है, जिसके कारण वहां धार्मिक अल्पसंख्यकों को अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना पड़ता है। हिंदू, सिख और ईसाई समुदायों को अक्सर भेदभाव और हिंसा का सामना करना पड़ता है। उनके धार्मिक स्थलों को नुकसान पहुंचाया जाता है, जबरन धर्म परिवर्तन कराया जाता है और कानूनी मामलों में उनके साथ अन्याय होता है। अगर राज्य पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष होता, तो यह भेदभाव नहीं होता।
2. सांप्रदायिक हिंसा और कट्टरता को रोकना
जब सरकार धार्मिक नीतियों का पालन करती है, तो समाज में सांप्रदायिक तनाव बढ़ता है। धार्मिक समूह एक-दूसरे को प्रतिद्वंद्वी मानने लगते हैं, जिससे समाज में नफरत और हिंसा का माहौल बनता है।
भारत में 1947 के विभाजन के समय सांप्रदायिक हिंसा, 1984 में सिख विरोधी दंगे, 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हुए दंगे और 2002 के गुजरात दंगों के उदाहरण यह दर्शाते हैं कि जब राजनीति में धर्म का हस्तक्षेप होता है, तो इसका परिणाम समाज में हिंसा और अस्थिरता के रूप में सामने आता है।
3. लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की रक्षा
लोकतंत्र का सिद्धांत यह कहता है कि सभी नागरिकों को समान अधिकार मिलें और किसी भी व्यक्ति के साथ उसके धर्म के आधार पर भेदभाव न हो। जब राज्य किसी धर्म विशेष का समर्थन करता है, तो लोकतांत्रिक मूल्यों पर खतरा मंडराने लगता है।
अमेरिका इसका एक बेहतरीन उदाहरण है, जहां संविधान में 'चर्च और स्टेट' को अलग रखने का स्पष्ट प्रावधान है। इससे सभी नागरिकों को यह स्वतंत्रता मिलती है कि वे किसी भी धर्म का पालन करें या न करें। हालांकि, हाल के वर्षों में अमेरिका में कुछ राजनीतिक दल धार्मिक नीतियों को बढ़ावा देने लगे हैं, जिससे चर्च और राज्य की स्वतंत्रता पर सवाल उठने लगे हैं।
4. महिलाओं और अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा
धार्मिक कानून अक्सर महिलाओं और अल्पसंख्यकों के खिलाफ भेदभावपूर्ण होते हैं। जब राज्य धार्मिक नियमों को कानूनी रूप देता है, तो इससे समानता का सिद्धांत कमजोर हो जाता है।
उदाहरण के लिए, अफगानिस्तान में तालिबान शासन ने शरीयत कानून लागू कर दिया, जिससे महिलाओं की शिक्षा और रोजगार की स्वतंत्रता खत्म हो गई। इसी तरह, ईरान में हिजाब पहनने को अनिवार्य बनाया गया, जिससे महिलाओं की व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर अंकुश लगा।
भारत में भी कई बार धार्मिक मान्यताओं के आधार पर महिलाओं के अधिकारों को प्रभावित किया गया है। ‘सती प्रथा’ और ‘बाल विवाह’ जैसी प्रथाएं धार्मिक परंपराओं के नाम पर लंबे समय तक चलीं, लेकिन जब राज्य ने हस्तक्षेप किया, तब जाकर महिलाओं को इन कुप्रथाओं से मुक्ति मिली।
5. वैज्ञानिक सोच और प्रगति को बढ़ावा देना
धार्मिक विश्वास कई बार ऐसे विचारों को बढ़ावा देते हैं, जो विज्ञान और तार्किकता के खिलाफ होते हैं। जब राज्य धार्मिक मान्यताओं के आधार पर नीतियां बनाता है, तो वैज्ञानिक और तार्किक सोच पर प्रभाव पड़ता है।
मध्ययुगीन यूरोप में चर्च के प्रभाव के कारण वैज्ञानिकों को सताया गया था। प्रसिद्ध वैज्ञानिक गैलीलियो को चर्च ने जेल में डाल दिया क्योंकि उन्होंने यह कहा था कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है। इसी तरह, चार्ल्स डार्विन के 'विकासवाद के सिद्धांत' को कई धार्मिक संगठनों ने खारिज कर दिया था।
आज भी कई देशों में विज्ञान को धार्मिक नजरिए से देखा जाता है, जिससे समाज का विकास बाधित होता है। इसलिए, यदि किसी राष्ट्र को आगे बढ़ना है, तो उसे धार्मिक कट्टरता से दूर रहकर वैज्ञानिक सोच को अपनाना होगा।
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ऐतिहासिक उदाहरण – जब धर्म और राजनीति का मेल घातक साबित हुआ
1. यूरोप में धार्मिक युद्ध
16वीं और 17वीं शताब्दी में यूरोप में धर्म के नाम पर कई युद्ध हुए। कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट ईसाइयों के बीच संघर्ष ने लाखों लोगों की जान ले ली। इसके बाद, यूरोप में चर्च और राज्य को अलग करने का फैसला लिया गया, जिससे वहां स्थिरता आई।
2. भारत में मुगलों और ब्रिटिश शासन का उदाहरण
अकबर ने अपने शासन में सभी धर्मों को समान महत्व दिया, जिससे साम्राज्य में स्थिरता रही। वहीं, औरंगजेब ने कट्टर इस्लामिक नीतियां अपनाईं, जिससे हिन्दू-मुसलमानों के बीच संघर्ष बढ़ गया।
ब्रिटिश शासन ने 'फूट डालो और राज करो' की नीति अपनाई, जिससे हिन्दू-मुसलमानों में विभाजन बढ़ा और अंततः भारत का विभाजन हुआ।
3. ईरान में इस्लामिक क्रांति
1979 में ईरान में इस्लामिक क्रांति हुई, जिससे वहां लोकतंत्र खत्म हो गया और धार्मिक कट्टरपंथियों का शासन आ गया। इससे महिलाओं और अल्पसंख्यकों के अधिकारों का हनन हुआ।
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वर्तमान वैश्विक परिप्रेक्ष्य – भारत, पाकिस्तान और अमेरिका का तुलनात्मक अध्ययन
भारत में धर्मनिरपेक्षता संविधान में निहित है, लेकिन हाल के वर्षों में सांप्रदायिक राजनीति बढ़ी है। पाकिस्तान एक इस्लामिक राष्ट्र है, जहां धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकार सीमित हैं। अमेरिका में चर्च और राज्य अलग हैं, लेकिन धार्मिक राजनीति का प्रभाव बढ़ रहा है।
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निष्कर्ष – धर्म और राज्य को अलग रखना क्यों जरूरी है?
1. सभी नागरिकों के लिए समानता सुनिश्चित होती है।
2. सांप्रदायिक हिंसा और कट्टरता को रोका जा सकता है।
3. लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता मजबूत होती है।
4. महिलाओं और अल्पसंख्यकों के अधिकार सुरक्षित रहते हैं।
5. वैज्ञानिक सोच और तार्किकता को बढ़ावा मिलता है।
इतिहास और वर्तमान के उदाहरण बताते हैं कि जब भी राज्य धर्म से प्रभावित होता है, तो वहां सामाजिक असमानता, हिंसा और अस्थिरता बढ़ जाती है। इसलिए, एक समतावादी और प्रगतिशील समाज के लिए धर्म और राज्य का अलग रहना अनिवार्य है।
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