गांधी बनाम डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर: दलितों के लिए किसकी सोच सही थी? | Gandhi vs Dr. Babasaheb Ambedkar: Daliton Ke Liye Kiski Soch Sahi Thi?


 गांधी बनाम डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर: दलितों के लिए किसकी सोच सही थी? | Gandhi vs Dr. Babasaheb Ambedkar: Daliton Ke Liye Kiski Soch Sahi Thi?




महात्मा गांधी और डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर, दोनों ही भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और सामाजिक सुधार आंदोलन के प्रमुख स्तंभ रहे हैं। लेकिन दलितों के अधिकारों और उनके उत्थान को लेकर इन दोनों महापुरुषों की सोच में भारी अंतर था।

गांधी जी छुआछूत के विरोधी थे, लेकिन वे वर्ण व्यवस्था को बनाए रखना चाहते थे। वहीं, डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर जाति व्यवस्था को पूरी तरह खत्म करना चाहते थे। इस लेख में हम दोनों के विचारों का तुलनात्मक विश्लेषण करेंगे और यह समझने की कोशिश करेंगे कि दलितों के लिए किसकी सोच अधिक प्रभावी और व्यावहारिक थी।


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1. गांधी और डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर: जाति और छुआछूत पर विचार

गांधी का दृष्टिकोण

गांधी जी छुआछूत के खिलाफ थे, लेकिन वे हिंदू धर्म की वर्ण व्यवस्था को स्वीकार करते थे। उन्होंने दलितों को "हरिजन" (भगवान के लोग) नाम दिया, लेकिन यह शब्द दलित समुदाय को स्वीकार्य नहीं था क्योंकि यह उनके संघर्ष को कमतर दिखाता था।

गांधी जी का मानना था कि हिंदू समाज में सुधार कर दलितों को बराबरी दी जा सकती है, लेकिन वे जाति व्यवस्था को पूरी तरह समाप्त करने के पक्ष में नहीं थे। 1932 में उन्होंने पूना पैक्ट के तहत दलितों को पृथक निर्वाचिका (Separate Electorate) का विरोध किया, जिससे दलितों का स्वतंत्र राजनीतिक सशक्तिकरण बाधित हुआ।

डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर का दृष्टिकोण

डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर मानते थे कि जाति व्यवस्था हिंदू धर्म का अभिन्न हिस्सा है और इसे खत्म किए बिना दलितों को समानता नहीं मिल सकती। वे गांधी जी के "हरिजन" शब्द का विरोध करते थे और दलितों को अपनी अलग पहचान बनाए रखने की सलाह देते थे।

उन्होंने दलितों के लिए पृथक निर्वाचिका की वकालत की ताकि वे अपने स्वतंत्र राजनीतिक अधिकार प्राप्त कर सकें। डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर का मानना था कि दलितों को हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म अपनाना चाहिए, ताकि वे बराबरी और सम्मान का जीवन जी सकें।


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2. पूना पैक्ट: गांधी और डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर के बीच टकराव

पृष्ठभूमि

1932 में, ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडोनाल्ड ने दलितों के लिए पृथक निर्वाचिका (Separate Electorate) की घोषणा की। इसका अर्थ था कि दलित अपने प्रतिनिधि खुद चुन सकेंगे, जिससे वे स्वतंत्र रूप से अपने अधिकारों की रक्षा कर सकते थे।

गांधी का विरोध

गांधी जी ने पृथक निर्वाचिका का विरोध करते हुए पुणे की यरवदा जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया। उनका मानना था कि यह हिंदू समाज को तोड़ने का प्रयास है। गांधी जी के समर्थकों ने इस मुद्दे पर भारी दबाव बनाया, जिससे डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर को समझौता करना पड़ा।

डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर का समझौता और इसके परिणाम

पूना पैक्ट के तहत दलितों को पृथक निर्वाचिका के बजाय आरक्षित सीटें दी गईं, लेकिन वे स्वतंत्र रूप से अपने प्रतिनिधि नहीं चुन सकते थे। डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर ने इसे मजबूरी में स्वीकार किया और बाद में इसे दलितों के अधिकारों के लिए एक बड़ा झटका बताया।

आलोचना

गांधी जी का यह कदम दलितों के राजनीतिक सशक्तिकरण के खिलाफ था। अगर पृथक निर्वाचिका लागू होता, तो दलित समाज अपनी स्वतंत्र राजनीतिक पहचान बना सकता था।


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3. सामाजिक सुधार पर गांधी और डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर की नीतियाँ

गांधी जी का मानना था कि हिंदू समाज में सुधार के माध्यम से दलितों की स्थिति सुधारी जा सकती है। उन्होंने मंदिर प्रवेश आंदोलन चलाए, जिससे दलितों को कुछ हद तक धार्मिक समानता मिली। हालांकि, उनके सुधार केवल छुआछूत मिटाने तक सीमित थे, जाति व्यवस्था को समाप्त करने की दिशा में वे ज्यादा सक्रिय नहीं थे।

वहीं, डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर मानते थे कि दलितों को आत्मनिर्भर बनने के लिए शिक्षा और आर्थिक सशक्तिकरण की जरूरत है। उन्होंने "शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो" का नारा दिया। वे मानते थे कि मंदिरों में प्रवेश से ज्यादा जरूरी शिक्षा, नौकरी और राजनीतिक अधिकार हैं।


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4. धर्म और जाति पर विचार

गांधी जी हिंदू धर्म को छोड़ने के पक्ष में नहीं थे, बल्कि वे उसमें सुधार करना चाहते थे। उनका मानना था कि सभी जातियों को एक साथ मिलकर रहना चाहिए। दूसरी ओर, डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर ने 1956 में बौद्ध धर्म अपनाया, क्योंकि वे मानते थे कि हिंदू धर्म में समानता असंभव है।

उन्होंने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म की दीक्षा ली और नवयान बौद्ध धर्म की स्थापना की। उनके अनुसार, दलितों को हिंदू धर्म से मुक्त होकर एक नया जीवन शुरू करना चाहिए।


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5. गांधी और डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर की नीतियों का प्रभाव

गांधी जी के प्रयासों से दलितों को मंदिर प्रवेश और छुआछूत उन्मूलन जैसे सीमित लाभ मिले, लेकिन उनके सुधार सतही थे और राजनीतिक अधिकारों की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं हुई।

इसके विपरीत, डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर ने दलितों के लिए वास्तविक सशक्तिकरण की दिशा में काम किया। उन्होंने शिक्षा, राजनीतिक अधिकार और धर्म परिवर्तन के माध्यम से सामाजिक क्रांति की नींव रखी। उनकी नीतियाँ दलित समाज को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में अधिक प्रभावी साबित हुईं।


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6. निष्कर्ष: दलितों के लिए कौन सही था?

महात्मा गांधी ने निश्चित रूप से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महान योगदान दिया, लेकिन उनकी दलित नीतियाँ व्यवहारिक रूप से कमजोर थीं। उन्होंने दलितों के लिए मंदिर प्रवेश और छुआछूत उन्मूलन जैसे सीमित सुधार किए, लेकिन वर्ण व्यवस्था को बनाए रखने की उनकी सोच दलितों के लिए नुकसानदायक रही।

दूसरी ओर, डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर ने दलितों के लिए वास्तविक सशक्तिकरण की दिशा में काम किया। उन्होंने शिक्षा, राजनीतिक अधिकार और धर्म परिवर्तन को सामाजिक उत्थान का आधार बनाया। उनकी नीतियाँ दलित समाज को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में अधिक प्रभावी साबित हुईं।

अंत में, यदि सवाल यह उठता है कि दलितों के लिए किसकी सोच सही थी, तो उत्तर स्पष्ट है – डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर।




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