अलग निर्वाचक मंडल: बाबा साहेब आंबेडकर बनाम गांधी | Separate Electorate Debate & Poona Pact Explained



भारत में अलग निर्वाचक मंडल और पूना पैक्ट: बाबा साहेब आंबेडकर बनाम गांधी

भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, समाज सुधार और राजनीतिक प्रतिनिधित्व के मुद्दों पर महात्मा गांधी और डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर के बीच महत्वपूर्ण मतभेद उभरे। इनमें से एक प्रमुख मुद्दा 'अलग निर्वाचक मंडल' (Separate Electorates) का था, जो दलित समुदाय के राजनीतिक अधिकारों और प्रतिनिधित्व से संबंधित था। इस ब्लॉग पोस्ट में, हम अलग निर्वाचक मंडल की अवधारणा, बाबा साहेब आंबेडकर और गांधीजी के दृष्टिकोण, पूना पैक्ट, और गांधीजी की आलोचना पर विस्तार से चर्चा करेंगे।


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अलग निर्वाचक मंडल: एक परिचय

अलग निर्वाचक मंडल एक ऐसी चुनाव प्रणाली है जिसमें विशेष समुदायों के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र निर्धारित किए जाते हैं, जिससे वे अपने प्रतिनिधि स्वयं चुन सकें। उदाहरण के लिए, मुस्लिम लीग के प्रयासों से 1909 के भारतीय काउंसिल अधिनियम में मुस्लिम समुदाय के लिए अलग निर्वाचक मंडल की व्यवस्था की गई थी।

बाबा साहेब आंबेडकर का तर्क था कि उच्च जाति के हिंदू कभी भी दलितों के सच्चे प्रतिनिधि नहीं बन सकते और अगर दलितों को अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने का अधिकार नहीं मिलेगा, तो वे हमेशा सत्ता से दूर रहेंगे।


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बाबा साहेब आंबेडकर का दृष्टिकोण

बाबा साहेब आंबेडकर ने दलित समुदाय के सशक्तिकरण के लिए अलग निर्वाचक मंडल की वकालत की। उनका मानना था कि:

1. राजनीतिक स्वतंत्रता के बिना सामाजिक स्वतंत्रता संभव नहीं – जब तक दलितों को स्वतंत्र राजनीतिक शक्ति नहीं मिलेगी, तब तक वे सामाजिक रूप से समानता हासिल नहीं कर सकते।


2. संयुक्त निर्वाचक मंडल में दलितों का शोषण होगा – उच्च जाति के हिंदू नेता अपने स्वार्थ के लिए दलितों के मुद्दों को अनदेखा करेंगे।


3. अलग निर्वाचक मंडल दलितों को आत्मनिर्णय का अधिकार देगा – इससे दलितों को अपने हितैषी प्रतिनिधि चुनने का अवसर मिलेगा, जिससे उनके मुद्दे सही तरीके से उठाए जाएंगे।



बाबा साहेब आंबेडकर ने 1930 के गोलमेज सम्मेलन में दलितों के लिए अलग निर्वाचक मंडल की मांग उठाई, जिसे ब्रिटिश सरकार ने मान लिया और 1932 में "कम्युनल अवार्ड" की घोषणा की गई।


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महात्मा गांधी का दृष्टिकोण

महात्मा गांधी ने अलग निर्वाचक मंडल का कड़ा विरोध किया। उनका मानना था कि:

1. अलग निर्वाचक मंडल से हिंदू समाज बंट जाएगा – गांधीजी को डर था कि यह हिंदू समाज को विभाजित कर देगा और दलित, हमेशा के लिए अलग राजनीतिक वर्ग बन जाएंगे।


2. ब्रिटिश सरकार का "फूट डालो और राज करो" सिद्धांत मजबूत होगा – गांधीजी ने इसे ब्रिटिश सरकार की एक चाल बताया, जिससे वे भारतीय समाज में फूट डालकर शासन कर सकें।


3. दलितों की रक्षा का जिम्मा उच्च जाति के हिंदुओं को दिया जाना चाहिए – गांधीजी का मानना था कि सामाजिक सुधारों से ही दलितों को मुख्यधारा में लाया जा सकता है, न कि अलग निर्वाचक मंडल से।



गांधीजी ने कम्युनल अवार्ड के विरोध में यरवदा जेल में 20 सितंबर 1932 को आमरण अनशन शुरू कर दिया, जिससे पूरे भारत में तनाव बढ़ गया।


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पूना पैक्ट: एक समझौता

गांधीजी के अनशन के कारण देशभर में चिंता की लहर दौड़ गई, और अंततः बाबा साहेब आंबेडकर और गांधीजी के बीच समझौता हुआ, जिसे पूना पैक्ट के नाम से जाना जाता है। 24 सितंबर 1932 को हस्ताक्षरित इस समझौते के प्रमुख बिंदु निम्नलिखित थे:

आरक्षित सीटें: प्रांतीय विधानसभाओं में दलितों के लिए आरक्षित सीटों की संख्या 71 से बढ़ाकर 147 की गई।

संयुक्त निर्वाचक मंडल: अलग निर्वाचक मंडल की बजाय संयुक्त निर्वाचक मंडल की व्यवस्था की गई, जिसमें दलित उम्मीदवार सामान्य निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ सकते थे, लेकिन उनके लिए सीटें आरक्षित थीं।

प्राथमिक चुनाव: दलित समुदाय के मतदाताओं के लिए प्राथमिक चुनाव की व्यवस्था की गई, जिससे वे अपने समुदाय के प्रतिनिधियों का चयन कर सकें।


हालांकि इस समझौते से दलित समुदाय को राजनीतिक प्रतिनिधित्व में वृद्धि मिली, लेकिन बाबा साहेब आंबेडकर इससे पूरी तरह संतुष्ट नहीं थे।


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गांधीजी की आलोचना

1. दलितों के आत्मनिर्णय के अधिकार को कुचलना – गांधीजी ने दलितों के लिए अलग राजनीतिक पहचान को समाप्त कर दिया। इससे दलितों को अपने नेताओं को स्वतंत्र रूप से चुनने का मौका नहीं मिला और वे उच्च जाति के नेताओं पर निर्भर हो गए।


2. राजनीतिक दबाव का इस्तेमाल – गांधीजी ने अपनी मांग मनवाने के लिए अनशन का सहारा लिया। यह एक प्रकार का नैतिक दबाव था, जिससे बाबा साहेब आंबेडकर को समझौता करने के लिए मजबूर होना पड़ा।


3. ब्राह्मणवादी वर्चस्व को बनाए रखना – कुछ विद्वानों का मानना है कि गांधीजी नहीं चाहते थे कि दलितों को स्वतंत्र राजनीतिक शक्ति मिले, जिससे हिंदू समाज में ऊँची जातियों का प्रभुत्व बना रहे।


4. दलितों की मुख्यधारा में भागीदारी को सीमित करना – पूना पैक्ट के तहत दलितों को अधिक सीटें तो मिलीं, लेकिन वे स्वतंत्र रूप से अपने प्रतिनिधियों को चुनने से वंचित हो गए। इससे उनका राजनीतिक प्रभाव सीमित रह गया।



बाबा साहेब आंबेडकर ने बाद में कहा कि पूना पैक्ट से दलितों का बहुत नुकसान हुआ और यह उनकी सबसे बड़ी हार थी।


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निष्कर्ष

अलग निर्वाचक मंडल का मुद्दा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान सामाजिक न्याय और राजनीतिक प्रतिनिधित्व के जटिल प्रश्नों को उजागर करता है। बाबा साहेब आंबेडकर और महात्मा गांधी के बीच इस विषय पर मतभेद ने भारतीय समाज में दलित समुदाय की स्थिति और उनके सशक्तिकरण की दिशा में महत्वपूर्ण बहस को जन्म दिया।

हालांकि पूना पैक्ट के माध्यम से एक समझौता हुआ, लेकिन यह स्पष्ट है कि दलित समुदाय के पूर्ण सशक्तिकरण के लिए और अधिक प्रयासों की आवश्यकता थी। बाबा साहेब आंबेडकर ने 1942 में शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन की स्थापना की और अंततः भारतीय संविधान में दलितों के लिए आरक्षण की व्यवस्था करवाई।

आज भी, यह मुद्दा हमें सामाजिक न्याय और समानता की दिशा में निरंतर प्रयास करने की प्रेरणा देता है। बाबा साहेब आंबेडकर के विचार हमें बताते हैं कि केवल राजनीतिक अधिकारों से ही समाज में बराबरी लाई जा सकती है।


---  Kaushal Asodiya 


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