Article 31 of Indian Constitution: Protection Against Right to Property & Legal Insights – भारतीय संविधान का अनुच्छेद 31


हमारा संविधान, हमारी पहचान – 32

अनुच्छेद 31 : संपत्ति का अधिकार और उसका ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

भारतीय संविधान के भाग 3 में शामिल मूल अधिकारों में एक समय में अनुच्छेद 31 एक महत्वपूर्ण स्थान रखता था। यह अनुच्छेद नागरिकों को अपनी संपत्ति रखने और उसे सरकार द्वारा बिना उचित मुआवजे के जब्त किए जाने से सुरक्षा प्रदान करता था। लेकिन समय के साथ इस अनुच्छेद में संशोधन हुआ और आखिरकार इसे संविधान से हटा दिया गया। इस पोस्ट में हम अनुच्छेद 31 के ऐतिहासिक, कानूनी, सामाजिक और राजनीतिक पहलुओं पर विस्तार से चर्चा करेंगे।

अनुच्छेद 31 का मूल स्वरूप:

जब 1950 में भारतीय संविधान लागू हुआ, तब अनुच्छेद 31 में दो महत्वपूर्ण अधिकार निहित थे:

1. किसी भी व्यक्ति को अपनी संपत्ति से वंचित नहीं किया जा सकता था, जब तक कि कानून द्वारा ऐसा न कहा गया हो और उस व्यक्ति को उचित मुआवजा न दिया जाए।


2. राज्य किसी की संपत्ति को अधिग्रहित या अधिग्रहित करने के लिए कानून बना सकता था, परंतु इसके लिए उचित मुआवजा देना अनिवार्य था।



यह अनुच्छेद विशेष रूप से निजी संपत्ति के संरक्षण को सुनिश्चित करता था और भारत में उदार लोकतांत्रिक ढांचे को मजबूती देता था।

संपत्ति के अधिकार पर विवाद और संशोधन:

1950 के दशक से ही सरकार ने ज़मींदारी प्रथा को समाप्त करने और भूमि सुधारों को लागू करने की दिशा में कदम बढ़ाए। लेकिन अनुच्छेद 31 के तहत भूमि मालिकों ने अदालत में जाकर ऐसे सुधारों को चुनौती दी। इससे सरकार और न्यायपालिका के बीच टकराव की स्थिति बनी।

सरकार ने भूमि सुधारों को न्यायिक हस्तक्षेप से बचाने के लिए कई संशोधन किए:

पहला संविधान संशोधन (1951): अनुच्छेद 31(ए) और 31(बी) जोड़े गए ताकि भूमि सुधार कानूनों को न्यायिक जांच से बाहर रखा जा सके।

चालीसवां संशोधन (1976): इससे संसद को संपत्ति के अधिग्रहण के लिए किसी भी प्रकार का कानून बनाने का अधिकार मिला, जो न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती थी।


अनुच्छेद 31 को हटाना – 44वां संविधान संशोधन:

1978 में 44वें संविधान संशोधन के तहत अनुच्छेद 31 को समाप्त कर दिया गया और संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों की सूची से हटा दिया गया। इसके स्थान पर अनुच्छेद 300A को संविधान के भाग 12 में जोड़ा गया, जो कहता है:

"किसी भी व्यक्ति को उसकी संपत्ति से तभी वंचित किया जा सकता है जब कोई विधि ऐसा प्रावधान करे।"

यानि अब संपत्ति का अधिकार एक संवैधानिक अधिकार है, मौलिक अधिकार नहीं। इसका अर्थ है कि इस अधिकार के उल्लंघन की स्थिति में व्यक्ति सीधे सुप्रीम कोर्ट में नहीं जा सकता।

अनुच्छेद 31 के हटाए जाने के पीछे तर्क:

सरकार का मानना था कि संपत्ति का अधिकार मौलिक अधिकारों की श्रेणी में होना भूमि सुधारों और सामाजिक न्याय में बाधा उत्पन्न कर रहा था। विशेषकर ज़मींदारी प्रथा को समाप्त करने और कृषि भूमि के न्यायोचित वितरण के प्रयासों में यह अनुच्छेद एक कानूनी अड़चन बनता जा रहा था।

इसके अतिरिक्त, आर्थिक समानता और समाजवादी सिद्धांतों के आधार पर यह निर्णय लिया गया कि संपत्ति का अधिकार एक संवैधानिक अधिकार होना चाहिए, जिससे सामाजिक उद्देश्य की प्राप्ति हो सके।

अनुच्छेद 31 हटने के बाद प्रभाव:

संपत्ति का अधिकार अब मौलिक अधिकार न रहकर सामान्य संवैधानिक अधिकार बन गया।

अब सरकार किसी भी सार्वजनिक उद्देश्य के लिए संपत्ति का अधिग्रहण कर सकती है, बशर्ते कि वह संसद द्वारा पारित कानून के अंतर्गत हो।

इससे भूमि सुधारों को गति मिली और सरकार को गरीबों एवं वंचित वर्गों के लिए भूमि वितरण एवं पुनर्वास जैसी योजनाओं को लागू करने में सहूलियत हुई।


आलोचना:

हालांकि अनुच्छेद 31 को हटाने के पीछे सामाजिक और आर्थिक न्याय का तर्क था, परंतु इसके आलोचक मानते हैं कि इससे नागरिकों के अधिकार कमजोर हुए। यह भी तर्क दिया गया कि राज्य की शक्ति बढ़ी और नागरिकों की स्वतंत्रता और व्यक्तिगत सुरक्षा कमज़ोर हुई। कई बार सरकारों ने भूमि अधिग्रहण के नाम पर गरीब किसानों और आदिवासियों की ज़मीनें बिना समुचित मुआवज़े के अधिग्रहित कीं, जिससे सामाजिक असंतोष बढ़ा।

संपत्ति अधिकार और न्यायपालिका:

हालांकि अब यह मौलिक अधिकार नहीं रहा, फिर भी उच्चतम न्यायालय ने कई मामलों में संपत्ति के अधिकार को जीवन के अधिकार (अनुच्छेद 21) से जोड़ा है और कहा है कि यदि किसी की संपत्ति का अधिग्रहण मनमाने तरीके से किया गया हो, तो यह संविधान के खिलाफ है।

कुछ प्रमुख केस:

Kesavananda Bharati Case (1973): इसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधान की मूल संरचना को बदला नहीं जा सकता।

Jilubhai Nanbhai Khachar Case (1995): इसमें स्पष्ट किया गया कि संपत्ति का अधिकार अब सिर्फ संवैधानिक अधिकार है।


निष्कर्ष:

अनुच्छेद 31 का इतिहास बताता है कि कैसे एक लोकतांत्रिक समाज अपनी ज़रूरतों और परिस्थितियों के अनुसार अपने संविधान को रूपांतरित करता है। यह कदम सामाजिक न्याय, आर्थिक समानता और समाजवादी मूल्यों को आगे बढ़ाने के लिए उठाया गया था। हालांकि आज यह मौलिक अधिकार नहीं है, परंतु नागरिकों को अब भी न्यायपालिका के माध्यम से संरक्षण मिलता है।

हमारे संविधान की यह विशेषता है कि वह समय के साथ बदलता है लेकिन नागरिकों के अधिकारों को बचाए रखने का संतुलन बनाए रखता है।

लेखक – Kaushal Asodiya

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