Bharat ke Samvidhan ka Part 4 – Directive Principles of State Policy (DPSP) aur Kartavya in Hindi
हमारा संविधान, हमारी पहचान – भाग 4: अनुच्छेद 36 से 51 की व्याख्या और वर्तमान प्रासंगिकता
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जब हम भारतीय संविधान को समझने की कोशिश करते हैं, तो अक्सर हमारा ध्यान मौलिक अधिकारों और कर्तव्यों पर केंद्रित रहता है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि एक राष्ट्र के तौर पर हमें सामाजिक और आर्थिक दिशा कौन देता है? यही भूमिका निभाते हैं राज्य के नीति निदेशक तत्व — यानी Directive Principles of State Policy (DPSPs), जो संविधान के भाग 4 (अनुच्छेद 36 से 51) में वर्णित हैं।
यह भाग संविधान की वह आत्मा है, जो हमें बताता है कि भारत केवल एक राजनीतिक राज्य नहीं, बल्कि एक कल्याणकारी और न्यायपूर्ण समाज बनने की आकांक्षा रखता है।
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📘 राज्य के नीति निदेशक तत्व क्या हैं?
राज्य के नीति निदेशक तत्व संविधान द्वारा सरकार को दिए गए नैतिक और वैचारिक मार्गदर्शन हैं। ये सरकार को यह दिशा दिखाते हैं कि देश का शासन कैसे होना चाहिए ताकि हर नागरिक को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय मिल सके।
> ये अनुच्छेद न्यायालय में लागू नहीं किए जा सकते (non-justiciable), लेकिन ये किसी भी लोकतांत्रिक सरकार की नीति निर्माण की रीढ़ माने जाते हैं।
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📜 अनुच्छेद 36 से 51: मुख्य बिंदुओं की आसान व्याख्या
🧾 अनुच्छेद 36: 'राज्य' की परिभाषा
यह बताता है कि “राज्य” का वही अर्थ है जो मौलिक अधिकारों में दिया गया है — यानी केंद्र सरकार, राज्य सरकारें, पंचायतें, नगरपालिकाएं, सरकारी संस्थाएं आदि।
⚖️ अनुच्छेद 37: न्यायालय में प्रवर्तनीय नहीं, पर अनिवार्य
यह स्पष्ट करता है कि ये अनुच्छेद अदालत में लागू नहीं कराए जा सकते, लेकिन इन्हें शासन के सिद्धांतों के रूप में अनिवार्य माना जाना चाहिए।
🏛️ अनुच्छेद 38: न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था
राज्य को निर्देशित करता है कि वह ऐसी सामाजिक व्यवस्था बनाए जहाँ सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय सभी को मिले।
⚖️ अनुच्छेद 39: आर्थिक लोकतंत्र की आधारशिला
पुरुषों और महिलाओं को समान अधिकार और आजीविका का अवसर मिले।
संसाधनों और धन का समान वितरण हो।
बाल श्रम और शोषण पर रोक लगे।
⚖️ अनुच्छेद 39A: सभी के लिए न्याय तक समान पहुँच
गरीब और असहाय लोगों को न्याय के लिए मुफ्त कानूनी सहायता उपलब्ध कराना — आज भी Legal Aid Services India में इसी अनुच्छेद की भावना झलकती है।
🏡 अनुच्छेद 40: पंचायतों को सशक्त बनाना
ग्राम स्वराज की अवधारणा के तहत स्थानीय स्वशासन की स्थापना की बात करता है।
👨👩👧 अनुच्छेद 41 से 43B:
अनुच्छेद 41: शिक्षा और काम का अधिकार
अनुच्छेद 42: काम के मानवीय हालात और मातृत्व अवकाश
अनुच्छेद 43: सभी को जीविका के साधन मिले
अनुच्छेद 43A: कामगारों को प्रबंधन में भागीदारी मिले
अनुच्छेद 43B: सहकारी समितियों को प्रोत्साहन
🕌 अनुच्छेद 44: समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code)
धर्म, जाति या समुदाय से परे एक समान व्यक्तिगत कानून लागू करने की दिशा में राज्य को प्रयास करने का निर्देश।
> यह अनुच्छेद आज भी भारत के संवैधानिक और सामाजिक विमर्श में अत्यंत प्रासंगिक बना हुआ है।
👶 अनुच्छेद 45 से 47:
45: 6 साल तक के बच्चों को प्रारंभिक शिक्षा
46: अनुसूचित जातियों/जनजातियों और कमजोर वर्गों का उत्थान
47: पोषण, स्वास्थ्य और मादक द्रव्यों से सुरक्षा
🐄 अनुच्छेद 48: गोहत्या पर प्रतिबंध और पशुधन संरक्षण
पशुओं की नस्लों के संरक्षण की बात करता है, खासकर गोवंश।
🌳 अनुच्छेद 48A: पर्यावरण की रक्षा
वनों, नदियों और जैव विविधता की सुरक्षा पर जोर देता है।
🏛️ अनुच्छेद 49: राष्ट्रीय स्मारकों की सुरक्षा
ऐतिहासिक स्मारकों, धरोहरों और सांस्कृतिक विरासत की रक्षा का निर्देश।
⚖️ अनुच्छेद 50: न्यायपालिका की स्वतंत्रता
कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच स्पष्ट विभाजन बनाए रखने की बात करता है — जो लोकतंत्र की नींव है।
🌐 अनुच्छेद 51: अंतरराष्ट्रीय शांति का समर्थन
भारत की विदेश नीति को शांति, मानवाधिकार और संयुक्त राष्ट्र के सिद्धांतों पर आधारित रखने की प्रेरणा देता है।
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🧭 राज्य के नीति निदेशक तत्वों का ऐतिहासिक संदर्भ
भारतीय संविधान निर्माताओं ने DPSP की प्रेरणा आयरलैंड के संविधान से ली थी। लेकिन भारतीय परिप्रेक्ष्य में इनका दायरा और गहराई कहीं अधिक विस्तृत है।
डॉ. भीमराव अंबेडकर ने कहा था कि:
> “अगर भविष्य में सरकार इन नीति निदेशक तत्वों की उपेक्षा करती है, तो जनता उसे बदलने के लिए स्वतंत्र होगी।”
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🚩 वर्तमान समय में अनुच्छेद 36–51 की प्रासंगिकता
आज जब सामाजिक विषमता, महिला सुरक्षा, बाल श्रम, पर्यावरण संकट और रोजगार जैसे मुद्दे पहले से अधिक जटिल हो चुके हैं, तब भाग 4 की भूमिका और भी अहम हो जाती है।
समान नागरिक संहिता: एक राष्ट्र, एक कानून की भावना को मजबूत करता है।
पर्यावरण संरक्षण: जलवायु परिवर्तन के दौर में अनुच्छेद 48A सरकार की जिम्मेदारी तय करता है।
सामाजिक सुरक्षा योजनाएं जैसे PMAY, MGNREGA, और आयुष्मान भारत इन्हीं सिद्धांतों की उपज हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने कई बार DPSPs को ‘संविधान की आत्मा’ कहते हुए सरकारी नीतियों की समीक्षा में इनका हवाला दिया है।
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🧠 केस स्टडी: केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973)
इस ऐतिहासिक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि भले ही DPSP न्यायिक रूप से लागू नहीं किए जा सकते, लेकिन वे संविधान की ‘बुनियादी संरचना’ का हिस्सा हैं।
यह निर्णय भारतीय न्याय व्यवस्था में इन अनुच्छेदों की स्थिति को और भी मजबूत बनाता है।
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📌 क्यों DPSPs जरूरी हैं?
ये देश को एक संवेदनशील और जवाबदेह लोकतंत्र की दिशा में ले जाते हैं।
गरीब, वंचित और हाशिए पर खड़े नागरिकों को मुख्यधारा से जोड़ने का आधार बनते हैं।
ये नीतियाँ मूल अधिकारों के साथ संतुलन बनाकर शासन को न्यायपूर्ण बनाती हैं।
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✨ निष्कर्ष: कल्याणकारी भारत की कल्पना
अनुच्छेद 36 से 51 केवल शब्दों का समूह नहीं हैं, ये उस सपने की नींव हैं जिसे संविधान निर्माताओं ने देखा था — एक ऐसा भारत, जहाँ हर व्यक्ति को समान अवसर मिले, न्याय मिले और उसकी गरिमा बनी रहे।
हमारा कर्तव्य है कि हम इन मूलभूत सिद्धांतों को केवल पढ़ें नहीं, बल्कि अपनी चेतना और शासन में उतारें।
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🔗 आगे क्या?
अगली श्रृंखला में हम प्रत्येक अनुच्छे
द की गहराई से समीक्षा करेंगे — उनके ऐतिहासिक संदर्भ, अदालती व्याख्या और आज की सामाजिक चुनौतियों से उनके संबंध को विस्तार से समझेंगे।
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✍️ लेखक: Kaushal Asodiya