Indian Judiciary में Collegium System की कमियां और NJAC का Analysis | Justice Verma Case से सीख

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भारतीय न्यायपालिका में कोलेजियम प्रणाली: एक विश्लेषण और आलोचना


भारत में न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने के लिए न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया बहुत महत्वपूर्ण है। वर्तमान में, भारत में उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति कोलेजियम प्रणाली के माध्यम से की जाती है। हालांकि, इस प्रणाली की पारदर्शिता और जवाबदेही को लेकर कई आलोचनाएं भी सामने आती रही हैं। इसके विकल्प के रूप में सरकार ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) की स्थापना का प्रयास किया, लेकिन यह सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ द्वारा असंवैधानिक घोषित कर दिया गया।

इस ब्लॉग में हम कोलेजियम प्रणाली की पूरी जानकारी, उसकी आलोचना, NJAC के पक्ष-विपक्ष, और हाल ही में न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के मामले के प्रकाश में न्यायिक नियुक्ति प्रणाली पर चर्चा करेंगे।


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कोलेजियम प्रणाली क्या है?

कोलेजियम प्रणाली भारत में सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण की एक प्रणाली है। यह प्रणाली न्यायपालिका के भीतर ही न्यायाधीशों की नियुक्ति की शक्ति को बनाए रखती है, जिसमें सरकार की भूमिका बहुत सीमित होती है।

कोलेजियम प्रणाली का गठन कैसे हुआ?

यह प्रणाली भारत के संविधान में सीधे रूप से उल्लिखित नहीं है बल्कि यह सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों के आधार पर विकसित हुई है। इसकी शुरुआत तीन महत्वपूर्ण मामलों से हुई:

1. पहला न्यायाधीश मामला (1981) – इसमें यह निर्णय लिया गया कि न्यायाधीशों की नियुक्ति में राष्ट्रपति का प्रमुख अधिकार होगा और वे कार्यपालिका (Executive) की सलाह पर फैसला लेंगे।


2. दूसरा न्यायाधीश मामला (1993) – इसमें कोलेजियम प्रणाली को पहली बार लागू किया गया, जिसमें कहा गया कि भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) और सर्वोच्च न्यायालय के कुछ वरिष्ठ न्यायाधीशों की समिति ही नियुक्तियों का निर्णय करेगी।


3. तीसरा न्यायाधीश मामला (1998) – इसमें कोलेजियम की परिभाषा को और स्पष्ट किया गया और सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के अलावा चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों को भी इसमें शामिल किया गया।




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कैसे काम करता है कोलेजियम सिस्टम?

कोलेजियम प्रणाली के तहत, न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण की प्रक्रिया निम्नलिखित चरणों में होती है:

1. सिफारिश – सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और चार वरिष्ठतम न्यायाधीश मिलकर नए न्यायाधीशों की नियुक्ति या स्थानांतरण की सिफारिश करते हैं।


2. केंद्र सरकार को भेजना – यह सिफारिश केंद्र सरकार को भेजी जाती है, जो इसमें कोई आपत्ति दर्ज कर सकती है।


3. पुनर्विचार का अवसर – अगर सरकार को किसी नाम पर आपत्ति होती है, तो वह इसे कोलेजियम को वापस भेज सकती है। यदि कोलेजियम दोबारा उसी नाम की सिफारिश करता है, तो सरकार को उसे मंजूर करना पड़ता है।




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कोलेजियम प्रणाली की आलोचना

हालांकि कोलेजियम प्रणाली ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखने में मदद की है, लेकिन इसमें कुछ महत्वपूर्ण कमियां भी हैं:

1. पारदर्शिता की कमी

कोलेजियम प्रणाली में यह स्पष्ट नहीं होता कि किस आधार पर न्यायाधीशों का चयन किया जाता है। नियुक्तियों को लेकर कोई सार्वजनिक दस्तावेज या प्रक्रिया का विवरण उपलब्ध नहीं होता, जिससे यह प्रक्रिया अपारदर्शी लगती है।

2. जवाबदेही का अभाव

चूंकि कोलेजियम में न्यायाधीश खुद ही नए न्यायाधीशों का चयन करते हैं, इसलिए इसमें किसी बाहरी निगरानी या संतुलन की व्यवस्था नहीं होती। इससे न्यायपालिका के भीतर भाई-भतीजावाद (Nepotism) और पक्षपात की संभावना बढ़ जाती है।

3. कार्यपालिका की न्यूनतम भूमिका

संविधान में शक्ति के संतुलन का सिद्धांत (Separation of Powers) है, लेकिन कोलेजियम प्रणाली में कार्यपालिका की भूमिका केवल औपचारिक रह जाती है। इससे न्यायपालिका पूरी तरह से स्वतंत्र होने के बजाय आत्मनिर्भर (Self-Sustaining) तंत्र बन जाती है, जो लोकतंत्र के लिए सही नहीं माना जाता।


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न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा मामला: एक गंभीर उदाहरण

न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा का मामला कोलेजियम प्रणाली की पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी को उजागर करता है।

मामले का सारांश:

1. 14 मार्च 2025 को दिल्ली में न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के आधिकारिक आवास पर रात 11:35 बजे आग लगने की घटना हुई।


2. इस आग को बुझाने के दौरान अग्निशमन कर्मियों को ₹15 करोड़ की जली हुई नकदी मिली।


3. इस खोज के बाद, मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने तीन सदस्यीय समिति गठित की, जिसमें न्यायमूर्ति शील नागू, जी.एस. संधावालिया और अनु शिवरामन शामिल थे।


4. जांच के दौरान न्यायमूर्ति वर्मा से उनका न्यायिक कार्य वापस ले लिया गया।


5. न्यायमूर्ति वर्मा ने आरोपों को साजिश करार दिया और कहा कि वह होली के दौरान दिल्ली में नहीं थे।



कोलेजियम प्रणाली की और आलोचना

इस मामले में कई सवाल उठते हैं:

क्या कोलेजियम प्रणाली न्यायाधीशों की जांच करने में सक्षम है?

क्या न्यायाधीशों की पारिवारिक पृष्ठभूमि और वित्तीय स्थिति की जांच की जाती है?

यदि न्यायपालिका स्वयं अपनी नियुक्तियों की देखरेख कर रही है, तो जवाबदेही कैसे सुनिश्चित की जाएगी?


इस घटना ने दिखाया कि कोलेजियम प्रणाली में जवाबदेही की भारी कमी है। यदि न्यायिक नियुक्तियों में कोई स्वतंत्र और निष्पक्ष निकाय होता, तो शायद ऐसे मामलों से बचा जा सकता था।


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निष्कर्ष: क्या होना चाहिए समाधान?

वर्तमान में, कोलेजियम प्रणाली ही न्यायाधीशों की नियुक्ति की एकमात्र प्रणाली बनी हुई है, लेकिन इसे लेकर विवाद और आलोचना लगातार बनी रहती है।

संभावित समाधान:

1. कोलेजियम प्रणाली में अधिक पारदर्शिता लाई जाए, जिससे चयन प्रक्रिया जनता के सामने स्पष्ट हो।


2. NJAC जैसी प्रणाली में सुधार करके, न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच उचित संतुलन बनाया जाए।


3. न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए एक स्वतंत्र निकाय (Independent Commission) बनाया जाए, जो निष्पक्ष रूप से योग्यता के आधार पर चयन करे।



न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के मामले ने यह साबित कर दिया कि कोलेजियम प्रणाली को लेकर सुधार की सख्त जरूरत है। यदि न्यायपालिका को निष्पक्ष और पारदर्शी बनाना है, तो एक नई प्रणाली को अपनाने पर विचार किया जाना चाहिए।

आपको क्या लगता है – कोलेजियम प्रणाली बेहतर है या NJAC जैसी कोई नई प्रणाली लागू होनी चाहिए? अपनी राय नीचे कमेंट में जरूर बताएं!

Kaushal Asodiya 

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